कविता
नानी
-विजय सिंह मीणा -
गौर वर्ण लम्बी कद काठी, मृग नयनी सी लगती थी ।
वाक पटु हसमुख स्वभाव, ममता की मूरत लगती थी ।
पाक शास्त्र और लोक गान की , उसमें कला निराली थी ।
हस्त कला की निपुण , गांव की दादी वो मतवाली थी ।
तीन साल का था जब मैं,मुझको सन्ग अपने ले आई ।
ममता की वो सजल मूर्ति, कभी ना मां की याद आई ।
साथ सुलाती लोरी गाती , देख देख हर्षाती वो ।
कांधे पर बैठाकर मुझको , सारा गांव घुमाती वो ।
जब मैं रोता मानो उसकी , सारी खेती सूख गई ।
जब मैं हसता ऐसे हसती, मानो कोयल कूक गई ।
मेरी बाल सुलभ क्रीडाएं, मनमाना सुख देती थी ।
नानी की सारी चिन्ताएं, पलभर में हर लेती थी ।
सबसे पहले घर में खाना,मुझे खिलाया जाता था ।
सुबह सुबह नानी का पल्लू, पकड दही मैं खाता था ।
ऊंगली थामे उसकी मैं, जब विद्यालय की ओर गया ।
उस ऊंगली के सम्बल से , मेरे जीवन में भोर हुआ ।
शैतानी पर उसके डन्डे खाते नहीं अघाते थे ।
पर पल में हम अपने को , उनके आंचल में पाते थे।
सात बरस मैं रहा साथ में, सात जनम का सुख पाया ।
इन्ही सात बरसो में मैने, जीवन अमृत को पाया ।
जब भी आज दुविधा के , मैं किसी मोड पर आता हूं ।
ह्रदय पटल पर नानी का ,प्रतिबिम्ब झलकता पाता हूं ।
साहस और हिम्मत का प्रतिफ़ल, इसी बिम्ब से पाता हूं ।
जीवन की टेढी राहों में,अविरल बढता जाता हूं ।
कैसे जाऊं भूल उसे ,मेरे जीवन की दानी थी ।
सब न्यौछावर कर गई मुझपर, ऐसी मेरी नानी थी ।
गिरकर उठना उठकर चलना, चल कर राह पकड लेना ।
बार बार समझाती मुझको , पाकर मन्जिल दम लेना ।
शायद किसी जनम का मैंने , ये तो प्रतिफ़ल पाया था ।
इसिलिए तो इस जग में , ऐसी नानी को पाया था ।
धीरे धीरे नानी को , वृद्दावस्था ने भरमाया ।
समझ गया मेरे सिर से ,अब उठने वाला है साया ।
पावन कार्तिक माष सुनहले मौसम ने अंगडाई ली ।
दे आशीष सभी को प्यारी, नानी स्वर्ग सिधार गई ।
अक्टूबर अषटादश तिथि को, दो हजार का साल हुआ।
नब्बे वर्ष की दीर्घायु में , उनका महाप्रस्थान हुआ ।
रही धधकती चिता देर तक , जडवत बैठा देख रहा ।
अपनो से इस तरह बिछुडना , यही विधि का लेख रहा ।
ईश्वर भी यदि पूछे मुझसे ,अपनी इच्छा बतलाऊं ।
जनम जनम में केवल अपनी , नानी का आंचल पांऊ ।
विजय सिंह मीणा
फ्लेट-37, पाकेट-1, सेक्टर-14
द्वारका, नई दिल्ली -110078
मोबाईल- 9968814674
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