Thursday, 15 December 2011

नानी


कविता
नानी
-विजय सिंह मीणा -

गौर वर्ण लम्बी कद काठी, मृग नयनी सी लगती थी
वाक पटु हसमुख स्वभाव, ममता की मूरत लगती थी

पाक शास्त्र और लोक गान की , उसमें कला निराली थी
हस्त कला की निपुण , गांव की दादी वो मतवाली थी

तीन साल का था जब मैं,मुझको सन्ग अपने ले आई
ममता की वो सजल मूर्ति, कभी ना मां की याद आई

साथ सुलाती लोरी गाती , देख देख  हर्षाती वो
कांधे पर बैठाकर मुझको , सारा गांव घुमाती वो

जब मैं रोता मानो उसकी , सारी खेती सूख गई
जब मैं हसता ऐसे हसती,   मानो कोयल कूक गई

मेरी बाल सुलभ क्रीडाएं, मनमाना सुख देती थी
नानी की सारी चिन्ताएं, पलभर में  हर लेती थी ।

सबसे पहले घर में खाना,मुझे खिलाया जाता था
सुबह सुबह नानी का पल्लू, पकड दही मैं खाता था

ऊंगली थामे उसकी मैं, जब विद्यालय की ओर गया
उस ऊंगली के सम्बल से , मेरे जीवन में भोर हुआ

शैतानी पर उसके डन्डे खाते नहीं अघाते थे
पर पल में हम अपने को , उनके आंचल में पाते थे।



सात बरस मैं रहा साथ में, सात जनम का सुख पाया ।
इन्ही सात बरसो में मैने, जीवन अमृत को पाया ।

जब भी आज दुविधा के , मैं किसी मोड पर आता हूं
ह्रदय पटल पर  नानी का ,प्रतिबिम्ब झलकता पाता हूं

साहस और हिम्मत का प्रतिफ़ल, इसी बिम्ब से पाता हूं
जीवन की टेढी राहों  में,अविरल बढता जाता हूं

कैसे जाऊं भूल उसे ,मेरे जीवन की दानी थी
सब न्यौछावर कर गई मुझपर, ऐसी मेरी नानी थी

गिरकर उठना उठकर चलना, चल कर राह पकड लेना
बार बार समझाती मुझको , पाकर  मन्जिल दम लेना

शायद किसी जनम का मैंने , ये तो प्रतिफ़ल पाया था
इसिलिए तो इस जग में , ऐसी नानी को पाया था

धीरे धीरे नानी को , वृद्दावस्था ने भरमाया
समझ गया मेरे सिर से ,अब उठने  वाला है साया

पावन कार्तिक माष सुनहले मौसम ने अंगडाई ली
दे आशीष सभी को प्यारी, नानी स्वर्ग सिधार गई

अक्टूबर अषटादश तिथि को, दो हजार  का साल हुआ।
नब्बे वर्ष की दीर्घायु में , उनका महाप्रस्थान हुआ

रही धधकती चिता देर तक , जडवत  बैठा देख रहा
अपनो से इस तरह बिछुडना , यही विधि का लेख रहा

ईश्वर भी यदि पूछे मुझसे ,अपनी इच्छा बतलाऊं
जनम जनम में केवल अपनी , नानी का आंचल पांऊ

विजय सिंह मीणा
फ्लेट-37, पाकेट-1, सेक्टर-14
द्वारका, नई दिल्ली -110078
मोबाईल- 9968814674

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