Tuesday 12 September 2017

मीना लोक साहित्य- विजय सिंह मीना
मीणा लोकगाथा गीत एवम लोकगीतों का शैलीगत परिचय
- हरी कीर्तन -
इसे स्थानीय भाषा में कीर्तन,धुन,रामधूणी आदि नामों से भी अभिहित किया जाता है । यह प्रबंधपरक लोकगीत है जिसकी कथावस्तु किसी प्रसिद्ध पौराणिक आख्यान या रामायण और महाभारत के प्रसिद्ध कथानकों से ली जाती है । इसके गठन में दौहा, चौपाई,सिरबंदा,कड़ी, बढ़ावा आदि मुख्य अंग होते है । इसके स्वर ऊंचे और तेज आवाज में गाये जाते हैं । इसके गाने वालो की संख्या 25 से 50 तक होती है, जो दो भागों में विभाजित रहते हैं ।8-10 व्यक्ति खड़े होकर गाते है बाकी नीचे समूह रुप में बैठकर गाते हैं । इनके गाने वालों के समूह को जोठ या मंडली कहा जाता हे । एक व्यक्ति सारी जोठ का मुखिया या मुख्य गायक के रुप में होता है जिसे मेडिया कहा जाता है । इसमें मुख्य रुप से ढोलक,हारमोनियम, तासी, चिमटा, झांझ-मजीरा,भपंगा आदि मुख्य वाद्य यंत्र होते हैं । मीणा-समाज में गांवों में लोग इन जोठों को आमंत्रित कर एक स्थान पर इनका प्रदर्शन व गायन सुनते हैं जिसे दंगल कहा जाता है । इनके गायन का प्रवाह, लय,तुकबंदी और ऊंचा सुर ही इसकी प्रसिद्धि के मुख्य अवयव है । इसमें सर्वप्रथम ईश वंदना होती है जिसे स्थानीय भाषा में भवानी मनाना कहते हैं। इसमें मुख्य रुप से गणेश, सरस्वती,दुर्गा अथवा अंचल की कोई लोक देवी या देवता का स्मरण किया जाता है, जिसमें गायक की यही मनोकामना रहती है कि हे आराध्य इस सभा या दंगल में हमारी जोठ ही विजयी होवे।
 दोहा सुर बिन मिले ना सरस्वती, गुरू बिन मिले ना ज्ञान
 कंठ बैठ परमेश्वरी, मैं धरु तुम्हारो ध्यान ।
 मुखड़ा गणपति प्यारे, शिवजी के राजदुलारे ,
मनाऊं तोने आज रे
मेरी लज्जा तुम्हारे हाथ रे ।
हे गण नायक गणेश, हे शिवजी के प्यारे सुपुत्र आज इस सभा में सर्वप्रथम मैं तुम्हारा ही आव्हान कर रहा हूं क्योंकि अब मेरी प्रतिष्ठा को बचाने वाला तुम्हारे अलावा कोई नहीं है ।
दर्शकगण प्रत्येक मंडली की ईश वंदना से ही उनके गायन और उसकी जीतने की संभावनाओं का अंदाजा लगाना शुरू कर देते तथा यहां एक मान्यता बलवती है कि प्रारम्भ यदि अच्छा हो तो विजय की संभावना काफी बलवती हो जाती है । इसीलिए सभी कीर्तन मंडलिया ईश वंदना की प्रस्तुति अपने अपने अनूठे अंदाज में करने की कोशिश करती हैं ।
इसके पश्चात् विभिन्न धार्मिक कथाओं पर आधारित हरि कीर्तनों की प्रस्तुति मनमोहक धुनों और आर्कषक सुर-ताल और उत्कृष्ट तुकबंदी में प्रारम्भ होती है जो अनायास ही दर्शकों को भाव विभोर कर देती हैं । चर्चित कथाओं में नरसी जी का भात, शिव-विवाह, रावर्ण-अंगद संवाद, बलि राजा का जन्म, कृष्ण की माखन चोरी और उससे जुड़ी विभिन्न अर्न्तकथाएं, लंका दहन, पारासर ऋषि,अहिल्या उद्धार, मछोदरी की कथा, शिवजी की अमर कथा आदि की प्रस्तुति देखने लायक होती हैं । इनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि प्राचीन कथाओं को इन्होंने आधुनिक परिवेश के अनुरुप ढ़ालकर उसमें आकर्षण के नवीन आयाम पैदा किये जैसे तुलसीदास जी जब कामांध होकर रात्रि में ही अपनी ससुराल में रत्नावली के पास पहुंच जाते हैं । रत्नावली उन्हें विभिन्न प्रकार के उपालम्य देती हुई कहती है कि -
 अब आयो जो बीच बलम तड़के दिन दिन सू आतो,
होता जंवाई गाड़ी गीत चोखा तू माल खातो,
हे रे होती आवादानी, खिंदाबा में नहीं करे आनी
कछु तू बौसातो, अरे हो पिछोड़ी निश्चय ले जातो |
हे प्राणनाथ तू इस घनघोर रात्रि के स्थान पर यदि कल दिन में यहां आता तो तेरा यहां मान-सम्मान होता । तेरी साली-सलहज तेरे आने की खुशी में गीत-गाली गाती तथा तेरे लिए अच्छे अच्छे पकवान बनाती । मेरे माता-पिता भी खुशी-खुशी तेरे साथ विदा कर देते साथ् ही तुझे विदा में निश्चित तौर पर उत्तरीय वस्त्र(पिछोड़ी) भी देते । हे प्राणनाथ क्या तुम्हारे मन ने इन बातों का पूर्वानुमान लगाना बिल्कुल ही बंद कर दिया है।
 सिया के टप टप टपके नीर,
माता मनमें बांधो धीर,
बोले पवन पुत्र बलबीर, समझा रहयो है,
झठ प्रक्ट भये हनुमान, सिया के चरणन सीस
नवायो है , वाकू समझ राम को दूत,
सिया ने ऐसे वचन सुनायो रै,
श्री रघुवर कृपा निकेता,
है कुशल अनुज समेता ।।
हनुमान जी जब अशोक वाटिका में मुद्रिका को सीता के समक्ष गिराते है तो सीता उसे देखकर चिंतित हो रोने लगती है,तब हनुमान जी वहां प्रकट होकर सीता को राम व लक्ष्मण की कुशलता से अवगत कराते है । उसी कारुंणिक दृश्य को यहां इस लोकगीत की पंक्ति में बड़े ही सुन्दर ढंग से चित्रित किया गया है । इस पद्य में खड़ी बोली, ब्रज और लोक बोली का सामंजस्य बड़ा ही सटीक ढंग से बिठाया गया है, जिससे पद की गेयता में प्रवाह को अत्यधिक बल मिला है ।
 उठै दरद हो ज्याय कूंकड़ो बैठयो बैठयो रोवे,
बैठ बगल राणी कै पूछे कितना दिन में होवे,
मैं तो बैठयो हूं लाचार,
कर दे दाई कू समचार,
फेर रिस आय, ठीकरी खाय, खटाई मंगवाय,
रोज राणी सू ।
रात चौगुणो दिन में दूणो, पडयो फरक पाणी सू,
पाणी पियो रात में सारो
हो तो जावे पेट नंगारो
भारी होगा दोनूं पांव
सुपना बुरा बुरा सा आंय
भारी होय, रात में रोय, कतई नहीं सोय, भूप घीगायो,
धीरज राखो स्वामी नौ महिना को होतो आयो,
कर विचार मन में अपार,
समझा रही जणी जणी
ओ जीजी याको रामजी धणी ।।
ये गीत बलिराजा के जन्म की कथा से उदधृत है । जब राजा बहलोजन मंत्रो से मथे हुए पानी को रानी को पिलाने के स्थान पर भूलवश स्वयं पी जाते है |उनके गुरु शुक्राचार्य ने कहा था कि इस पानी को अपनी रानी को पिला देना वह गर्भवती हो जाएगी और तुम्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी । भूलवश राजा जब उस पानी को पी जाता है तो उसके प्रभाव से राजा के पेट में बच्चा पलने लगता है । इसी प्रसव-पूर्व वेदना का वर्णन यहां प्रश्नोत्तर शैली में आधुनिक भावचित्रों एवं प्रसव पूर्ण की वेदना अनुभूतियों के साथ बड़े ही हास्यस्पद ढ़ंग से प्रस्तुत किया गया है ।
भावार्थ - राजा का चेहरा प्रसव वेदना से मलीन और व्यथित हो रहा है । राजा बड़े ही उत्सुक और चिन्तातुर भाव से अपनी पटरानी से पूछता है कि - हे महारानी मेरे उदर में इतना तेज दर्द होता है कि मैं ढंग से बैठ भी नहीं पाता हूं, मुझे ये तो बता कि बच्चा कितने दिन में होता है । मैं तो सभी प्रकार से लाचार होकर घर में कैद सा हो रहा हूं । ना तो राजदरबार और ना ही महल से कहीं बाहर जा सकता हूं । राजा खीजकर कभी ठीकरे खाने लगता है तो कभी खटाई खाने की इच्छा प्रकट करता है । आर्तभाव से पश्चातापवश सोचता है कि मैंने जिस दिन से मंत्र-मथित जल पिया है उसी दिन से यह बालक दिन दूना और रात चौगुना मेरे उदर में बढ रहा है। मेरी उदराकृति एक नंगाड़े की भांति दिखाई देने लग गई । दौनों पैरों में भारीपन आ गया तथा रात्रि को बुरे बुरे स्वपन आते है । इस प्रकार के वचनों को सुन रानी उन्हें धैर्य धारण करने की विनती करती हैं । अन्त:पुर की अन्य दासियॉं आपस में विचार करती हुई कह रही है कि अब तो इसका ईश्वर ही मालिक है। इस गीत में प्रसव-पूर्व होने वाली कठिनाईयों, मन का विचलन, खट्टी -मीठी वस्तुओं को खाने की इच्छा का बड़ा ही सजीव चित्र खींचा है और साथ् उत्कृष्ट तुकबंदी ने इसमें चार चांद लगा दिये हैं ।
 सौंठ सुपारी और छुवारा पिस्ता किसमिस न्याड़ी,
दाखन सू थैलो भर दियो पांच किलो ली झाडी,
कनस्तर लियो देशी घी को बूरो स्यामा हलवाई को,
बता रही बात, और का चाहत, लिस्ट है हाथ,
तेल तेली को ।
बणियां का सू बोली भाया गुड़ दीज्यो भेली को,
भेली हाथा-हूत घिताई, आगे सारी लिस्ट बताई,
लीयो मूंग उड़द को चूरो, और सामान बांध लियो पूरो,
कुर्ता टोपी कई जोड़ी, चावल हड़दी रोड़ी मोड़ी,
उठा लियो झट्ट, बैठ गई रट्ट, धरयो है फट्ट,
माल को थैलो,
गाड़ी में धर दीयो वाने लियो गांव को गेलो
कर विचार मन में अपार, बतड़ा रही जणी जणी,
हो राजा आगो अणी-तणी ।।
जब रानी को निश्चय हो गया कि अब दो-चार दिन में ही राजा के जापा होने वाला हें तो उसने प्रसव के बाद दिये जाने वाले सामान की सूची बनाकर उसे बाजार से खरीद रही हैं । इस गीत में उसी सामान का वर्णन किया गया है ।
इस गीत की विशेषता यह है कि इसमें मीणा संस्कृति को पूरी तरह साकार किया गया हे । मीणाओं में प्रसव के बाद जो सामान जच्चा को दिया जाता है उसका यहां परिगणन शैली में बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया गया हैं । प्राचीन कथा का आधुनिकीकरण कर उसे मीणा संस्कृति के अनुरुप प्रस्तुतीकरण ही इस विधा का मुख्य वैशिष्ट्य है ।
 सौमोती रामोती भौती फाबूली और जगनी,
धनकोरी धनमंती धन्नो धापा संग में मगनी,
कमला भारी बणै खिलार, बिमला बैठी है शरमार,
बुलाओ देर,
धूगरी लेर,
करी नहीं देर,
पहुंचगी जल्लो।
केसंती कंपूरी कैला आगे मिलगी कल्लो ।
सुगनी लाडो बाडो भौंरी रेसी रामा रामकटोरी,
केसो रामकली केसंती पीछे केसर ओर उगंती,
उठायो गीत,
बगल में भीत
अनोखी रीत
घूगरी सीजी
खील पतासा बांट रही है रामचरण की जीजी
हे रे गीत गार, निकली है भार, चलदी है जब घरकू ।
जामणो तेरस कू ।।
इस गीत में मीणाओं में प्रचलित जच्चा गायन और उस समय होने वाले क्रिया-कलाप का वर्णन उत्कृष्ट शैली में किया गया है । मीणाओं में परम्परागत रुप से स्त्रियों के जो नाम पाये जाते है यहां उनका बड़ी संजीदगी और अनुप्रास शैली में वर्णन उल्लेखीय है कवि ने इस गीत में उच्च कोटि के बिम्ब विधान को चित्रित किया हैं । मीणा लोक-संस्कृति की मुखर अभिव्यंजना और अभिव्यक्ति इस गीत की अपनी थाति है । इस अवसर पर स्त्रियों को घूगरी ( गैहूं के उबले दाने) खील, बतासे आदि प्रदान किये जाते है जिन पर कि यह गीत प्रकाश डाल रहा हैं ।
आज के बदलते परिवेश में इस विद्या में भी विभिन्न परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगे हैं । पूर्व में इसकी कथावस्तु मुख्यत: धार्मिक ही होती थी परन्तु अब कुछ लौकिक व समाज में हो रही आस-पास की घटनाओं पर भी इसमें रचना होने लगी हैं । इसमें विभिन्न नवीन धुनों, नवीन कथ्य,एवं विभिन्न विद्याओं के अंशो व धुनो से निर्मित मिश्रित धुनों का भी समावेश स्वीकार्य हो गया है ।
( मेरी पुस्तक मीना लोक साहित्य एवम संस्कृति से )