विजय शतक - विजय सिंह मीणा
प्रथम खंड -(भक्ति)
हरो हरि हिय की व्यथा, हमरी दीन दयाल ।
हरयो ही रह्यो हिय में सदा , मेरे नटवर लाल ॥1॥
भोले हो नंदलाल तुम , चले तारने मोय ।
मुझ कामी के काम से , किसे ना नफरत होय ॥2॥
ह्रदय व्रन्दावन बसें , बुद्धि मथुरा माँहिं ।
तजि शरीर मन चल दियो , ब्रज कदम्ब की छाँह ॥3॥
रटत रटत रटतो रहो , कामी काम ही काम ।
कैसे आओगे प्रभु , लियो ना तेरो नाम ॥ 4 ॥
भली छवि घनश्याम की, रास रचत सखि बीच ।
कारी कजरारी घटा , ज्यों सावन के बीच ॥ 5॥
श्रवण भजन और कीर्तन , इनसे हुयो नित दूर ।
शंका तुम से क्या प्रभु , किये पाप भरपूर ॥ 6॥
प्रेम अंकुरित ह्रदय में , बसें सदा नंदलाल ।
प्रेम ही मूल आधार है , अमर होय त्रिकाल ॥ 7।।
मानुष जनम सबसे बड़ा , जो इसे बिताकर जाय ।
नरक देहरी वे खडे , जो इसे गंवा कर जाय ॥ 8॥
एक माया की छाँह से , होय प्रभु अति दूर ।
एक माया सुमिरन करे , शम्भू कृपा भरपूर ॥9॥
अधर धरत द्रग ना खुलत , अंगुलि बने रषाल ।
तू और तेरी बाँसुरी, धन्य धन्य नंदलाल ॥10॥
लख चौरासी फेर में , भटके बारम्बार ।
चेतन मन तू चेत जा, हो सुमार्ग असवार ॥11॥
2-नीति-खंड
सुख की चाहत सब करे , सुख को ही करे प्रणाम ।
लेकिन दुःख नहीं होय तो , सुख की क्या पहचान ॥12॥
कायर जीते जी मरे , मरे हज़ारों बार ।
धरा बोझ बन कर जिये, शत शत कोटि धिक्कार ॥ 13॥
कष्ट परै कैसे टरै , तब तो हरि से प्रीत ।
कष्ट टरै हरि से परे , कलि मनुष की रीत ॥ 14॥
अति हिंसा मिथ्या वचन , प्रीति और अज्ञान ।
लाख जतन कोउ करे , छुपा ना सके जहान ॥15 ॥
कर्म ध्वनि अति तेज है , शब्द ध्वनि अति मन्द ।
कर्म ध्वनि के तेज से , मिटे पाप दुःख द्वन्द ॥ 16 ।।
सदा परेशानी करे , लड़का दशवी फेल ।
सबब परेशानी का बने , खेत बीच ज्यों गैल ॥ 17 ॥
जीवन मृत्यु से परे , अमर रहे जग माँहिं ।
भाव आत्मा का वही , जग में प्रेम कहाय ॥ 18 ॥
अंवेषण निज दोष का , करे सो साधु होय ।
अनदेखी इनकी करे , साधु निन्दे सोय ॥ 19 ॥
चक्र नियति का ही सदा , और समय का फेर ।
नीचे घर ऊंचे बसें , ऊंचे घर अन्धेर ॥ 20 ॥
पाप पुण्य परिणाम सब , सभी मिले इहि काल ।
चौरासी के चक्र का , यही है मायाजाल ॥ 21 ॥
सुमरन सुमरन ते बडो , सुमरन ही को फेर ।
एक तो हरि के ढिंग बसे , दूजो हरि मुँह फेर ॥ 22 ॥
परनारी पर घर बसे , पल पल बदले रूप ।
परनारी से मिट गये , अच्छे अच्छे भूप ॥ 23 ॥
धर्म पंथ को भेद ज्यों , त्यों जीवन और मौत ।
परनारी जैसे रहे , पतिव्रता की सौत ॥ 24 ॥
प्रगति गति विपरीत है , मानव की इहि काल ।
दूषण प्रदूषण बन्यो , प्रकृति होय हलाल ॥ 25 ॥
नर प्रकृति चंचल सदा, सदा रहे अवरोह ।
बधू दूसरे की सदा , बच्चे निज ही सोह॥ 26 ॥
अरि प्रबल या जगत में , निज मन मनोविकार ।
संशय घृणा पाप गुण , बसें ह्रदय के द्वार ॥ 27॥
भूल द्वन्द अज्ञानता , दुःख के कारण मूल ।
बिसराओ तीनों सदा , मिटे हिये के शूल ॥ 28 ।।
अपने पर अपकार हो , दूजे पर उपकार ।
दोनों विस्मृत कीजिये , होगी जय जय कार ॥29॥
कृपण ना समझे धर्म को , परमारथ से दूर ।
लोक और परलोक में ईश्वर विमुख जरूर ॥30 ॥
दुर्दिन विपदा में सदा , बुद्धि से ले काम ।
वही धीर गम्भीर है , जय जय सातो याम ॥31॥
धन फल मानो धर्म को , विस्तारे विज्ञान ।
मिले शांति मनुज को ,नित्य नित्य नव ज्ञान ॥32॥
भय मत करो भविष्य का , भय चिंता का मूल ।
वर्तमान का सुख तभी, भोगोगे निर्मूल ॥33॥
संयम काटे वैर को , शत्रु मित्र बन जाय ।
जैसे कड़वी औषधि , रोग नाश कर जाय ॥34॥
3- श्रंगार-खंड
सपनों अपनों सो लगे , जब अपनों संग होय ।
पर अब अपनों साथ है , सपनो लागे दोय ॥ 35 ॥
कजरा चूड़ी व्यर्थ है , गजरा रहा मुरझाय ।
वर बूढ़ा वधू यौवना , गौरी नीर बहाय ॥36॥
चाँद चकोरी एक है , दूरी मत भरमाय ।
मन के एकाकार से , प्रेम अमर हो जाय ॥37 ।।
गेरोँ से फुरसत नहीं , वक्त प्रीत की जाय ।
मैं अपने गम में दुःखी , खाली दोनों नाय ॥38 ।।
सरसों पीली हो गई , आयो मधुर बसंत ।
सखि देह पीली भई , तऊ ना आये कंत ॥39॥
रात बात आछी लगे , परकीया के संग ।
उनकी गति यों समझिये , ज्यों लोहे पर जंग ॥ 40 ॥
विविध विषय -खंड
परमाणु का भेदिया , छोड़ा तुक्का तीर ।
वाह वाही के लोभ वश , बीजेपी रणधीर ॥41॥
पुस्तक बेचन के निमित्त , चली कुचाली चाल ।
भागी अपयश के बने , तऊ बजावत गाल ॥42॥
नगर गुलाबी धम निज , विजय सिंह मम नाम ।
विविध विषय लेखन करुँ , तभी मिले आराम ॥43॥
देह अमोलक जगत में,आत्मा संग सितार।
मधुर अमधुर राग तुम ,पाओ मति अनुसार॥44।।
लवण डाल जल में तनिक ,गर्म करो एक बार ।
करो गरारे जोर से , प्रतिदिन पाँच और चार ॥45॥
विष्णु छवि
एक हाथ चक्र अति शोभित है गल में वैजयंती माल लिये ।
एक हाथ गदा अति दमकत है जो सदा अधर्म सँहार करे ।
एक हाथ शंख धुनि बाजत है पीयूष सुधा श्रुति कान धरे ।
एक हाथ पद्म अति थिरकत है जो सदा भक्त की लाज रखे ।
मन मोहक मन ना बिसार सके मन में निसदिन अविराम रहे ।
हे नाथ अनाथ के द्वन्द हिये तुम्हरो कैसे विश्राम रहे ॥
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