Thursday, 15 December 2011

विजय शतक

विजय शतक     - विजय सिंह मीणा
प्रथम खंड -(भक्ति)
हरो हरि हिय की व्यथा, हमरी दीन दयाल
हरयो ही रह्यो हिय में सदा , मेरे नटवर लाल 1

भोले हो नंदलाल तुम , चले तारने मोय
मुझ कामी के काम से , किसे ना नफरत होय 2

ह्रदय व्रन्दावन बसें , बुद्धि मथुरा माँहिं
तजि शरीर मन चल दियो , ब्रज कदम्ब की छाँह 3

रटत रटत रटतो रहो , कामी काम ही काम
कैसे आओगे प्रभु , लियो ना तेरो नाम  4

भली छवि घनश्याम की, रास रचत सखि बीच
कारी कजरारी घटा , ज्यों सावन के बीच 5

श्रवण भजन और कीर्तन , इनसे हुयो नित दूर
शंका तुम से क्या प्रभु , किये पाप भरपूर 6

प्रेम अंकुरित ह्रदय में , बसें सदा नंदलाल
प्रेम ही मूल आधार है , अमर होय त्रिकाल 7।।

मानुष जनम सबसे बड़ा , जो इसे बिताकर जाय
नरक देहरी वे खडे , जो इसे गंवा कर जाय 8

 एक माया की छाँह से , होय प्रभु अति दूर
एक माया सुमिरन करे  , शम्भू कृपा भरपूर 9

  अधर धरत द्रग ना खुलत , अंगुलि बने रषाल
तू और तेरी बाँसुरी, धन्य धन्य नंदलाल 10 

 लख चौरासी फेर में , भटके बारम्बार
चेतन मन तू चेत जा, हो सुमार्ग असवार 11
















2-नीति-खंड

सुख की चाहत सब करे , सुख को ही करे प्रणाम
लेकिन दुःख नहीं होय तो , सुख की क्या पहचान 12

कायर जीते जी मरे , मरे हज़ारों बार
धरा बोझ बन कर जिये, शत शत कोटि धिक्कार 13

कष्ट परै कैसे टरै , तब तो हरि से प्रीत
कष्ट टरै हरि से परे , कलि मनुष की रीत 14

अति हिंसा मिथ्या वचन , प्रीति और  अज्ञान
लाख जतन कोउ करे , छुपा ना सके जहान 15

कर्म ध्वनि अति तेज है , शब्द ध्वनि अति मन्द
कर्म ध्वनि के तेज से , मिटे पाप दुःख द्वन्द 16 ।।

सदा परेशानी करे , लड़का दशवी  फेल
सबब परेशानी का बने , खेत बीच ज्यों गैल 17

जीवन मृत्यु  से परे , अमर रहे जग माँहिं
भाव आत्मा  का वही , जग में प्रेम कहाय 18

अंवेषण निज दोष का , करे सो साधु होय
अनदेखी इनकी करे , साधु निन्दे सोय 19


चक्र नियति का ही सदा , और समय का फेर
नीचे घर ऊंचे बसें , ऊंचे घर अन्धेर 20

पाप पुण्य परिणाम सब , सभी मिले इहि काल
चौरासी के चक्र का , यही है मायाजाल 21

सुमरन सुमरन ते बडो , सुमरन ही को फेर
एक तो हरि के ढिंग बसे , दूजो हरि मुँह फेर 22

परनारी पर घर बसे , पल पल बदले रूप
परनारी से मिट गये , अच्छे अच्छे भूप 23

धर्म पंथ को भेद ज्यों , त्यों जीवन और मौत
परनारी जैसे रहे , पतिव्रता की सौत 24

प्रगति गति विपरीत है , मानव की इहि काल
दूषण प्रदूषण बन्यो , प्रकृति होय हलाल 25

नर प्रकृति चंचल सदा, सदा रहे अवरोह
बधू दूसरे की सदा , बच्चे निज ही  सोह॥ 26

अरि प्रबल या जगत में , निज मन मनोविकार
संशय घृणा पाप गुण , बसें ह्रदय के द्वार 27

भूल द्वन्द अज्ञानता , दुःख के कारण मूल
बिसराओ तीनों सदा , मिटे हिये के शूल 28 ।।

अपने पर अपकार हो , दूजे पर उपकार
दोनों विस्मृत कीजिये , होगी जय जय कार 29

कृपण ना समझे धर्म को , परमारथ से दूर
लोक और परलोक में ईश्वर विमुख जरूर 30

दुर्दिन विपदा में सदा , बुद्धि से ले काम
वही धीर गम्भीर है , जय जय सातो याम 31

धन फल मानो धर्म को , विस्तारे विज्ञान
मिले शांति मनुज को ,नित्य नित्य  नव ज्ञान 32

भय मत करो भविष्य का , भय चिंता का मूल
वर्तमान का सुख तभी, भोगोगे निर्मूल 33

संयम  काटे वैर को , शत्रु मित्र बन जाय
जैसे कड़वी औषधि , रोग नाश कर जाय 34







3-  श्रंगार-खंड

सपनों अपनों सो लगे , जब अपनों संग होय
पर अब अपनों साथ है , सपनो लागे दोय 35

कजरा चूड़ी व्यर्थ है , गजरा रहा मुरझाय
वर बूढ़ा वधू यौवना , गौरी नीर बहाय 36

चाँद चकोरी एक है , दूरी मत भरमाय
मन के एकाकार से , प्रेम अमर हो जाय 37 ।।

गेरोँ से  फुरसत नहीं , वक्त प्रीत की जाय
मैं अपने गम में दुःखी , खाली दोनों नाय 38 ।।

सरसों पीली हो गई , आयो मधुर बसंत
सखि देह पीली भई , तऊ ना आये कंत 39

रात बात आछी लगे , परकीया के संग
उनकी गति यों समझिये , ज्यों लोहे पर जंग 40

विविध विषय -खंड

परमाणु का भेदिया , छोड़ा तुक्का तीर
वाह वाही के लोभ वश , बीजेपी रणधीर 41

पुस्तक बेचन के निमित्त , चली कुचाली चाल
भागी अपयश के बने , तऊ बजावत गाल 42

नगर गुलाबी धम निज , विजय सिंह मम नाम
विविध विषय लेखन करुँ , तभी मिले आराम 43

देह अमोलक जगत में,आत्मा संग सितार।
मधुर अमधुर राग तुम ,पाओ मति अनुसार॥44।।

लवण डाल जल में तनिक ,गर्म करो एक बार
करो गरारे जोर से , प्रतिदिन पाँच और चार 45













 विष्णु छवि

एक हाथ चक्र अति शोभित है गल में वैजयंती माल लिये
एक हाथ गदा अति दमकत है जो सदा अधर्म सँहार  करे
एक हाथ शंख धुनि बाजत है पीयूष सुधा श्रुति कान धरे
एक हाथ पद्म अति थिरकत है जो सदा भक्त की लाज रखे
मन मोहक मन ना बिसार सके मन में निसदिन अविराम रहे
हे नाथ अनाथ के द्वन्द हिये तुम्हरो कैसे विश्राम रहे

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